भगवान विश्वकर्मा हैं 100 शिल्प ग्रंथों के प्रदाता |

कलाएं कितनी हो सकती हैं?
सब लोकोपयोगी हों। लोक उपयोगी सृजन से बड़ा कोई सृजन नहीं। सृजन श्रम, संघर्ष, समय को बचाने वाला और परिश्रम को सार्थक कर आजीविका देने वाला हो।
भारत विश्वकर्मीय ज्ञान के 100 से ज्यादा ग्रंथों से समृद्ध रहा है।

विश्‍वकर्मा और उनके शास्‍त्र

शिल्‍प और स्‍थापत्‍य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्‍वकर्मा का संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्‍येय रहा है। विश्‍वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्‍पकारों ने समय-समय पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्‍वयं कोई श्रेय नहीं लिया। सारा ही श्रेय सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्‍वरूप के र‍चयिता विश्‍वकर्मा को दिया।

उत्तरबौद्धकाल से ही शिल्‍पकारों के लिए वर्धकी या वढ़्ढी संज्ञा का प्रयोग होता आया है। ‘मिलिन्‍दपन्‍हो’ में वर्णित शिल्‍पों में वढ़ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है जो नक्‍शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ है, इसी के आसपास सौंदरानंद, हरिवंश आदि में भी अष्‍टाष्‍टपद यानी चौंसठपद वास्‍तु पूर्वक कपिलवस्‍तु और द्वारका के न्‍यास का संदर्भ आया है। हरिवंश में वास्‍तु के देवता के रूप में विश्‍वकर्मा का स्‍मरण किया गया है…।

प्रभास के देववर्धकी विश्‍वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्‍स्‍य, विष्‍ण्‍ाु आदि पुराणों में आया है जिनके महत्‍वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्‍मरण किया गया किंतु शिल्‍पग्रंथों में विश्‍वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। कहीं-कहीं समस्‍त सृष्टिरचना को ही विश्‍वकर्मीय कहा गया।

विश्‍वकर्मावतार, विश्‍वकर्मशास्‍त्र, विश्‍वकर्मसंहिता, विश्‍वकर्माप्रकाश, विश्‍वकर्मवास्‍तुशास्‍त्र, विश्‍वकर्मशिल्‍पशास्‍त्रम्, विश्‍वकर्मीयम् … आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्‍वकर्मीय परंपरा के शि‍ल्‍पों और शिल्पियों के लिए अावश्‍यक सूत्रों का गणितीय रूप में सम्‍यक परिपाक हुआ है। इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्‍छा आदि ग्रंथों के प्रवक्‍ता विश्‍वकर्मा ही हैं। ये ग्रंथ भारतीय आवश्‍यकता के अनुसार ही रचे गए हैं।

इन ग्रंथों का परिमाण और विस्‍तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन-पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। अनेक पाठ्यक्रम लागू किए जा सकते हैं। इसके बाद हमें पाश्‍चात्‍य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। यह ज्ञातव्‍य है कि यदि यह सामान्‍य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्‍या में शिल्‍प ग्रंथ नहीं होते। तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के रूप में मिलता है। इस तरह से लाखों श्‍लोक मिलते हैं। मगर, उनको पढ़ा कितना गया।

भवन की बढ़ती आवश्‍यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्‍तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्‍यान ही नहीं गया…। इस पर लगभग सौ ग्रंथों का संपादन और अनुवाद मैं ने किया है और कर रहा हूं।

विश्‍वकर्मा के चरित्र पर स्‍वतंत्र पुराण का प्रणयन हुआ। पिछले वर्षों में ‘महाविश्‍वकर्मपुराण’ का प्रकाशन भी हुआ। मेरा मन है कि भारत के ये ग्रंथ विश्व समुदाय के लिए प्रेरक बने देश वास्तु गुरु भी सिद्ध हो।

भगवान विश्वकर्मा सिर्फ शिल्प, नगर और यंत्रादि के ही सृजनकर्ता नहीं रहे बल्कि उन्होंने कई आयुधों और अस्त्र शस्त्रों का निर्माण भी किया है। कई दिव्यास्त्र जैसे सुदर्शन चक्र, शारंग धनुष, वरुणपास कुबेर की गदा आदि के निर्माण की कहानियां प्रचलित हैं।

कला शास्‍त्र के प्रवर्तक विश्‍वकर्मा

विश्‍वकर्मा को कला-शिल्‍प का आदि आचार्य माना जाता है। यूं तो विश्‍वकर्मा का जिक्र वेदों में हैं मगर, शिल्‍प शास्‍त्रकार के रूप में उनके मतों का प्रारंभिक उद्धरण नाट्यशास्‍त्र में मिलता है। मत्‍स्‍यपुराण में उनके शास्‍त्र को उद्धृत किया गया है और उनके परिचय में कहा गया है कि वे प्रभास के पुत्र और शिल्‍प के प्रजापति हैं, प्रासाद, भवन, उद्यान, कूप, जलाशय, बगीचा, प्रतिमा, आभूषण आदि के निर्माता के रूप में उनकी ख्‍याति रही है, वह देवताओं के वर्धकि हैं –

विश्‍वकर्मा प्रभासस्‍य पुत्र: शिल्‍पी प्रजापति:।
प्रासाद भवनोद्यानप्रतिमाभूषणादिषु।।
तडागारामकूपेषु स्‍मृत: सोsमरवर्धकि:।। (मत्‍स्‍यपुराण 5, 27-28)

उनके लिए प्रजापति, अमरवर्धकि, शिल्‍पाचार्य, कलाविद, स्‍थापत्‍य विशारद आदि कई नाम मिलते हैं, हाल ही संपादित एक विश्‍वकर्मापुराण और शिल्‍पशास्‍त्र में उनके सौ नाम मिलते हैं।* उत्‍तरी, पश्चिमी भारत में शिल्‍प के प्रवर्तक के रूप में विश्‍वकर्मा की परंपरा हमें र्इसापूर्व से उपलब्‍ध होती है। विश्‍वकर्मा प्रकाश जिसे मूलत: वास्‍तुतंत्र कहा गया था, प्रारंभिक ग्रंथ है किंतु बाद में यह मुहूर्त से ही अधिक संबंद्ध हो गया। इसकी एक पांडुलिपि मुझे कश्‍मीर की डॉ. सुषमादेवी गुप्‍ता के सहयोग से ‘विश्‍वकर्मासंहिता’ के नाम से भी मिली है।
अपराजितपृच्‍छा** ग्रंथ के संपादन, अनुवाद के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि उसके रचनाकाल, 1230 ई. के आसपास तक विश्‍वकर्मा के नाम से चार ग्रंथ प्रकाश में आ चुके थे। ये चार ही ग्रंथ विश्‍वकर्मा के मानसपुत्रों के नाम पर लिखे गए थे –
1. जयपृच्‍छा,
2. विजयपृच्‍छा,
3. अपराजितपृच्‍छा और
4. सिद्धार्थपृच्‍छा।
वैसे विश्‍वकर्मा के इन चारों ही पुत्रों का नाम सबसे पहले ‘समरांगण सूत्रधार’, रचनाकाल 1010 ई. में मिलता है, समरांगण स्‍वयं जय-विश्‍वकर्मा संवाद के रूप में लिखा गया है। इसमें कई पूर्ववर्ती ग्रंथों की सामग्री संजोई गई है।*

अपराजितपृच्‍छा अपने आपमें अनूठा ग्रंथ है जिसमें लगभग 7 हजार श्‍लोकों में कला के नाना रूपों का न केवल परिचय मिलता है बल्कि उनके प्रयोग और विधि-विधान की भी जानकारी मिलती है। भारत को ही नहीं, विश्‍व को इस विश्‍वकर्मीय कृति पर गर्व है। विश्‍वकर्मा के अन्‍य ग्रंथ भी जानकारी में आए हैं, इनमें से न केवल उत्‍तर भारत बल्कि दक्षिण भारत में भी विश्‍वकर्मीयम्, वास्‍तुविद्या, विश्‍वकर्माशिल्‍पादि ग्रंथ मौजूद है। कुछ का संपादन मुझे करने का अवसर मिला है। इनमें उत्‍तर और पूर्व भारतीय ग्रंथों में शिल्‍प की बहुतेरी जानकारियां हैं।

मुझे जर्मनी से प्रकाशित ‘विश्‍वकर्मापुराण’ का तेलुगु पाठ** मिला है। हालांकि मैं इसे पढ नहीं पा रहा था किंतु मित्रवर ब्रहृम श्री कोल्‍लोजु श्रीकांताचार्य स्‍वामि, महबूब नगर, तेलंगाण ने इसे मेरे लिए हिंदी, देवनागरी में अनूदित करने का वादा किया और इसी आधार पर कुछ समय पहले उस पुराण का अनुवाद सहित प्रकाशन हो गया है।

हिंसा विद्वानों का ध्‍येय नहीं : महाविश्‍वकर्म पुराण

क्रोधेपि चाश्रुपाते च शोके, चापि जलं स्‍पृशेत्।
कुर्यान्‍न लोहितं विद्वान्, विश्‍वकर्मा सदाशुचि:।।

इस श्‍लोक का सामान्‍य आशय है कि क्रोध करने पर, आंसु बहाने पर ओर शोक होने पर जलस्‍नान करना चाहिए, विद्वान कभी रक्‍तपात नहीं करता, वह ऐसा सोचता ही नहीं है और जो विश्‍व के लिए सृजन कर्म में लगे रहते हैं, वे सदा ही पवित्र हृदय होते है।

यह श्‍लोक महाविश्‍वकर्म पुराणम् (32, 15) का है जिसका अनुवाद आज ही पूरा हुआ है। यह पुराण मूलत: आंध्रलिपि में था जिसको जर्मनी में संरक्षित पाठ से तैयार किया गया और तेलुगु में यह वृत्ति सहित वर्षों पहले निकला। इस संस्‍कृत उपपुराण में कई अद्भुत बातें है, विशेषकर सृष्टि रचना में विश्‍वकर्मा के योगदान सहित विश्‍व के विकास में सहयोग देने वालों के लिए सोलह संस्‍काराें की जरूरत पर बल दिया गया है। क्‍योंकि, पुराणकार मानता है कि जन्‍म से सभी संस्‍कारहीन होते हैं और संस्‍कार हो जाने के बाद वे पाण्डित्‍य के धनी हो सकते हैं, इसके लिए पठन-पाठन जरूरी है। अपने अपने कुलगत कर्मों को करने वाल निरंतर दक्षता अर्जित करता है और वह कभी भूखा नहीं मरता। उसको अपने कुलगत कर्मों के कारण कोई दोष नहीं लगता। एक तरह से इसमें कई व्‍यावहारिक बातें हैं जो सर्वथा प्रासंगिक है।

विश्‍वकर्मा की पांच संतानें बताई गई है- मनु, मय, त्‍वष्‍टा, शिल्‍पी और विश्‍वज्ञ। इनके वंशजों की गोत्रों और प्रवर पर भी प्रकाश डाला गया था। मुनि कालहस्ति और राजा सुव्रत के संवाद रूप में लिखे गए इस पुराण का तेलुगु पाठ बहुत सीमित था। इसी कारण ब्रह्मश्री कोल्‍लोजु श्रीकान्‍ताचार्य स्‍वामि ने इसका देवनागरी पाठ तैयार किया। इस पाठ का संशोधन, संपादन और अनुवाद हिन्‍दी में आज पूरा हुआ। करीब पांच सौ ग्रंथों के मतों के उद्धरणों का पाद टिप्‍पणियाें के रूप में उपयोग किया गया है। इनमें ऋग्‍वेद, यजुर्वेद सहित गृहसूत्रों, धर्मसूत्रों, स्‍मृतियों, पुराणों और ज्‍योतिषीय ग्रंथों के उद्धरण शामिल हैं। पहली बार यह देवनागरी में देशवासियों को मिलेगा…

मूर्ति और चित्र शास्त्र में वेदों की छवि बनाने की परम्परा लगभग एक हजार साल पुरानी है। विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र में चारों वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण आदि के स्वरूप तय हुए जिसे अपराजित पृच्छा, जय पृच्छा में उद्धृत किया गया।

बाद में हेमाद्रि ने 1270 में इन मतों को महत्व देकर व्रत खंड में रखा और इसी आधार पर सूत्रधार मंडन ने देवता मूर्ति प्रकरण में दिया। उसी काल में चितौड़ गढ़ के विजय स्तंभ में चारों वेदों का अंकन हुआ और फिर उदयपुर में महाराणा संग्राम सिंह के शासनकाल में मेवाड़ शैली में चारों ही वेद के स्वरूप चित्रित हुए। ये चित्र पारम्परिक स्वरूप से भिन्न हैं।
विश्वकर्मा जयंती की
हार्दिक शुभकामनाएं…
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

आज विश्वकर्मा जयंती है…आएये जाने कौन है विश्वकर्मा जी…एक परिचय..!!

आप अपने प्राचीन ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही “विश्वकर्मा शिल्पी” अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है । भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कोर्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है । पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है । कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है ।

भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया । श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भगण-पोषण का कार्य सौप दिया । प्रजा का ठीक सुचारु रुप से पालन और राज्य करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया । बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की । उन्हे डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया । यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग-रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया ।

हमारे धर्मशास्त्रो और ग्रथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन प्राप्त होता है ।

विराट विश्वकर्मा – सृष्टि के रचेता
धर्मवंशी विश्वकर्मा – महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र
अंगिरावंशी विश्वकर्मा – आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र
सुधन्वा विश्वकर्म – महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋशि अथवी के पात्र
भृंगुवंशी विश्वकर्मा – उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र )

देवगुरु बृहस्पति की भगिनी भुवना के पुत्र भौवन विश्वकर्मा की वंश परम्परा अत्यंत वृध्द है।सृष्टि के वृध्दि करने हेतु भगवान पंचमुख विष्वकर्मा के सघोजात नामवाले पूर्व मुख से सामना दूसरे वामदेव नामक दक्षिण मुख से सनातन, अघोर नामक पश्चिम मुख से अहिंमून, चौथे तत्पुरुष नामवाले उत्तर मुख से प्रत्न और पाँचवे ईशान नामक मध्य भागवाले मुख से सुपर्णा की उत्पत्ति शास्त्रो में वर्णित है। इन्ही सानग, सनातन, अहमन, प्रत्न और सुपर्ण नामक पाँच गोत्र प्रवर्तक ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस सन्ताने उत्पन्न हुई जिससे विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ है ।

शिल्पशास्त्रो के प्रणेता बने स्वंय भगवान विश्वकर्मा जो ऋषशि रुप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का भण्डार है, शिल्पो कें आचार्य शिल्पी प्रजापति ने पदार्थ के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित करते हुए तथा मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाणच प्रमुख शिल्पायार्च पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस ,काष्ट, ताम्र, शिला एंव हिरण्य शिल्प के अधिषश्ठाता मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी एंव दैवज्ञा के रुप में जाने गये । ये सभी ऋषि वेंदो में पारंगत थे ।

कन्दपुराण के नागर खण्ड में भगवान विश्वकर्मा के वशंजों की चर्चा की गई है । ब्रम्ह स्वरुप विराट श्री.विश्वकर्मा पंचमुख है । उनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये है । उनके नाम है – मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ ।

ऋषि मनु विष्वकर्मा – ये “सानग गोत्र” के कहे जाते है । ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है । इनके वशंज लोहकार के रुप मे जानें जाते है ।
सनातन ऋषि मय – ये सनातन गोत्र कें कहें जाते है । ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। इनके वंशंज काष्टकार के रुप में जाने जाते है।
अहभून ऋषि त्वष्ठा – इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है । इनके वंशज ताम्रक के रूप में जाने जाते है ।
प्रयत्न ऋषि शिल्पी – इनका दूसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र प्रयत्न है । इनके वशंज शिल्पकला के अधिष्ठाता है और इनके वंशज संगतराश भी कहलाते है इन्हें मुर्तिकार भी कहते हैं ।

देवज्ञ ऋषि – इनका गोत्र है सुर्पण । इनके वशंज स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं । ये रजत, स्वर्ण धातु के शिल्पकर्म करते है, ।

परमेश्वर विश्वकर्मा के ये पाँच पुत्रं, मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ शस्त्रादिक निर्माण करके संसार करते है । लोकहित के लिये अनेकानेक पदार्थ को उत्पन्न करते वाले तथा घर ,मंदिर एवं भवन, मुर्तिया आदि को बनाने वाले तथा अलंकारों की रचना करने वाले है । इनकी सारी रचनाये लोकहितकारणी हैं । इसलिए ये पाँचो एवं वन्दनीय ब्राम्हण है और यज्ञ कर्म करने वाले है । इनके बिना कोई भी यज्ञ नहीं हो सकता ।

मनु ऋषि ये भगनान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र थे । इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था इन्होने मानव सृष्टि का निर्माण किया है । इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है ।

भगवान विश्वकर्मा के दुसरे पुत्र मय महर्षि थे । इनका विवाह परासर ऋषि की कन्या सौम्या देवी के साथ हुआ था । इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना किया है । इनके कुल में विष्णुवर्धन, सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि पैदा हुए है ।

भगवान विश्वकर्मा के तिसरे पुत्र महर्षि त्वष्ठा थे । इनका विवाह कौषिक ऋषि की कन्या जयन्ती के साथ हुआ था । इनके कुल में लोक त्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि उत्पन्न हुये है । वे देवताओं में पूजित ऋषि थे ।

भगवान विश्वकर्मा के चौथे महर्षि शिल्पी पुत्र थे । इनका विवाह भृगु ऋषि की करूणाके साथ हुआ था । इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति, शवमुन्यु आदि ऋषि हुये है । इनकी कलाओं का वर्णन मानव जाति क्या देवगण भी नहीं कर पाये है ।

भगवान विश्वकर्मा के पाँचवे पुत्र महर्षि दैवज्ञ थे । इनका विवाह जैमिनी ऋषि की कन्या चन्र्दिका के साथ हुआ था । इनके कुल में सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द, लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादी ऋषि हुये ।

इन पाँच पुत्रो के अपनी छीनी, हथौडी और अपनी उँगलीयों से निर्मित कलाये दर्शको को चकित कर देती है । उन्होन् अपने वशंजो को कार्य सौप कर अपनी कलाओं को सारे संसार मे फैलाया और आदि युग से आजलक अपने-अपने कार्य को सभालते चले आ रहे है ।

विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक कहा माना गया है। वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं-

देवौ सौ सूत्रधार: जगदखिल हित: ध्यायते सर्वसत्वै।

वास्तु के 18 उपदेष्टाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया है। उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में भी, जहां मय के ग्रंथों की स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है। वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है।

विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे।

सूर्य की मानव जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी विश्वकर्मा ने ही किया। राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में उनका ज़िक्र मिलता है। यह ज़िक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है। विश्वकर्मा कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय हैं—

कंबासूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।

हंसारूढ़स्विनेत्रं शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:॥

उनका अष्टगंधादि से पूजन लाभदायक है।

विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं। संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है। इस ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा ने अपने तीन अन्य पुत्रों जय, विजय और सिद्धार्थ को भी ज्ञान दिया |

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