1971 में पाकिस्तान को धूल चटाने वाले प्रथम फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की पुण्यतिथि पर पढ़ें उनकी वीरगाथा

जिनके नेतृत्व क्षमता से भारत ने वर्ष 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को परास्त कर एक नवीन शौर्य गाथा लिख डाली, भारतीय सेना के महान योद्धा फ़ील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ जी की पुण्यतिथि पर हम साझा कर रहे हैं उनकी वीरगाथा पढ़िए, समझिए और नमन कीजिए..

सैम मानेकशॉ का एक पारसी परिवार में अमृतसर में जन्म हुआ. शुरुआत में पिता को उनके आर्मी ज्वाइन करने पर आपत्ति थे. इस पर सैम ने पिता से कहा कि फिर उनको गायनोकोलॉजिस्ट बनने के लिए लंदन भेज देना चाहिए. पिता ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. नतीजतन मानेकशॉ इंडियन मिलिट्री एकेडमी की परीक्षा पासकर 1932 में सैन्य अफसर बन गए. उसके बाद अपने चार दशकों के मिलिट्री करियर में सैम ने 5 युद्धों में हिस्सा लिया.

1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मानेकशॉ से सैन्य तैयारियों के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, ”मैं हमेशा तैयार हूं स्वीटी.” पारसी कनेक्शन के कारण दरअसल उन्होंने इंदिरा गांधी से ऐसा कहा (इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी पारसी थे).

1942 में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सैम मानेकशॉ को बर्मा के मोर्चे पर भेजा गया था. वहां फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के कैप्टन के तौर पर वो जापानियों से मुकाबला करते हुए गंभीर रूप से घायल हो गए थे. एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन की सात गोलियां उनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दी.

एक गुरखा जवान सैम को अपने कंधे पर लादकर गंभीर हालत में डॉक्टर के पास ले आया, उस वक़्त उनकी हालत इतनी गंभीर थी कि डॉक्टर ने उनका इलाज करने से ही मना कर दिया. डॉक्टर ने उन पर अपना समय बर्बाद करना उचित नहीं समझा. यह देख गुरखा ने डॉक्टर पर रायफल तान दी और गुर्राया, “मेरे साब का हुक्म है जब तक जान बाकी है तब तक लड़ो. अगर तुमने इनका इलाज नहीं किया तो मैं तुम्हे गोली मार दूंगा.”

डॉक्टर ने आधे मन से उनके शरीर में घुसी गोलियां निकाल दीं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट कर अलग कर दिया. आश्चर्यजनक रूप से सैम बच गए. पहले उन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर वहां से वो अपने देश भारत लौट आए.

सैम मानेकशॉ कौन थे?

3 अप्रैल, 1914 को सैम मानेकशॉ का जन्म अमृतसर, पंजाब में एक पारसी दम्पति के यहाँ हुआ, उनके पिता एक डॉक्टर थे. स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करके वो अपने पिता की तरह डॉक्टर बनने के लिए लंदन जाना चाहते थे पर उनके पिता ने इसकी अनुमति नहीं दी. पिता के इस फैसले के विद्रोह में उन्होंने इंडियन मिलिट्री अकादमी (आई.एम.ए) देहरादून की प्रवेश परीक्षा दी और उसमें सफल हुए. 4 फरवरी, 1934 को वो आईएमए से ग्रेजुएट हुए और ब्रिटिश इंडियन आर्मी (जो अब इंडियन आर्मी है) में सेकंड लेफ्टिनेंट का पद भार सम्भाला, उसके बाद जो हुआ वो इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में लिखी हुई दास्तान बन गई.

सैम मानेकशॉ ने 4 दशकों तक भारतीय सेना की सेवा की. अपनी निडरता और बेबाकी से उन्होंने देश के लिए कई युद्ध लड़े और आगे चल कर जनरल का पदभार सम्भाला और फिर वो स्वतंत्र भारत के पहले फील्ड मार्शल बने. 1971 की भारत-पाकिस्तान जंग में उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व के दम पर भारत को जीत दिलाई और बांग्लादेश का जन्म हुआ. इसी युद्ध में उनके कौशल और युद्ध नीति की अग्नि परीक्षा भी हुई और वो इसमें सफल हुए.

1971 युद्ध की कहानी

पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में तनाव के चलते हालात हर दिन बिगड़ते जा रहे थे. भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान के विरुद्ध लड़ रहे ‘मुक्ति बाहिनी’ विद्रोहियों की सहायता करने का निर्णय लिया पर सबसे बड़ा सवाल था कि क्या भारत युद्ध के लिए तैयार है? तब की प्रधानमंत्री ने जब सैम मानेकशॉ से युद्ध के संदर्भ में सवाल किया तो उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा कि हमारे पास सैनिकों और गोले-बारूद दोनों की कमी है और भारत इस युद्ध के लिए तैयार नहीं है. इंदिरा गांधी ने इसके बाद उनके इस्तीफे की अर्ज़ी को भी स्वीकार नहीं किया.

सैम मानेकशॉ ने कहा कि यदि भारत युद्ध पर जाएगा तो उनकी बनाई हुई नीति और योजनाओं के अनुसार ही युद्ध लड़ा जाएगा. उन्होंने कहा कि युद्ध सिर्फ उनकी शर्तों पर लड़ा जाएगा, इंदिरा गांधी ने उनकी सारी शर्तें मान लीं. उसी साल दिसंबर में भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध के लिए कूच कर दिया और आगे जो हुआ वो हर भारतीय के लिए एक गौरवशैली इतिहास बन गया. सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान के दांत खट्टे कर दिए. 90,000 से ज़्यादा पाकिस्तानी सैनिकों को गिरफ्तार किया गया और पूर्वी पाकिस्तान ने बिना किसी शर्त के समर्पण कर दिया और बांग्लादेश का जन्म हुआ.

मृत्यु

27 जून 2008 को तमिलनाडु के एक मिलिट्री हॉस्पिटल में निमोनिया के चलते इस वीर ने अपनी आखिरी सांसें लीं. उनका पार्थिव शरीर एक पारसी कब्रस्तान के सुपुर्द कर दिया गया. इसी के साथ देश ने एक महान योद्धा और एक निडर और आत्मविश्वास से भरे सैनिक को हमेशा के लिए खो दिया. उनके आखरी शब्द थे, “मैं ठीक हूँ!”

2008 में वेलिंगटन के सैन्य अस्पताल में न्यूमोनिया की वजह से उनका निधन हो गया. उनके अंतिम संस्कार में कोई राजनेता नहीं आया और न ही शोक दिवस घोषित किया गया.

एक अवसर पर युद्ध में उनको सात गोलियां लग गई थीं और डॉक्टर ने उनसे पूछा कि क्या हुआ था तो उन्होंने कहा, “कुछ नहीं, बस एक गधे ने मुझे लात मार दी थी”.

भारतीय सेना से जुड़ने वाले हर सैनिक आप की बहादुरी, अनुशासन और द्रण संकल्प से सीख ले सकता है. सैम मानेकशॉ के बलिदान को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा और आप हर भारतीय के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बन कर जीवित रहेंगे

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