जीवत्पुत्रिकाव्रत {जीतिया}, कौन हैं विद्याधर जीमूतवाहन जिनकी कथा आज सुननी चाहिए?

आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित पुत्रिका कहते हैं । भविष्य पुराण में कहा गया है- आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में जो अष्टमी तिथि होती है वह स्त्रियों के लिए आयुरारोग्यलाभ तथा सर्वविध कल्याण दात्री होती है । इसे जनमानस में जीवत्पुत्रिका, जितिया या जीमूतवाहन व्रत कहा जाता है । प्रायः स्त्रियाँ इस व्रत को करती है । प्रदोषव्यापिनी (संध्या के समय) अष्टमी को स्वीकार करते हुए आचार्योंने प्रदोषकाल ( सायं काल) में जीमूतवाहन के पूजन का विधान स्पष्ट शब्दों में किया है । यदि पूर्व (पहले दिन) ही प्रदोष (सायं काल) व्यापिनी अष्टमी है दूसरे दिन नहीं है तो प्रदोष अनुरोध से पहले दिन की अष्टमी करनी चाहिए । तथा पारणा दुसरे दिन अष्टमी तिथि के अंत होने पर अर्थात नवमी तिथि में करनी चाहिए । पूर्वोक्त वचनों सेवा सिद्ध होता है । प्रदोष व्यापिनी अष्टमी में ही राजा जीमूतवाहन की पूजा नारियों को सदैव करणी चाहिए । विष्णु धर्मोत्तर के ये वचन है तिथि चन्द्रिका में पक्षधर मिश्र.का भी मानना यही है—
” प्रदोषसमये स्त्रीभिः पूज्यो जीमूतवाहनः । ”
यदि दो दिन प्रदोषव्यापिनी अष्टमी हो तो दुसरे दिन के अष्टमी ही ग्राह्य करना चाहिये । पुनः यदि सप्तमी उपरान्त अष्टमी हो तो वह भी ठीक है —
” सप्तम्यामुदिते सूर्ये परतश्चाष्टमी भवेत् ।
तत्र व्रतोत्सवं कुर्यान्न कुर्यादपरेऽहनि ।।
अष्टमी तिथि के बाद में पारणा करनी चाहिये —
” पारणं तु परादिने तिथ्यन्ते कार्यम् । ”
— नवमी तिथि में ही पारण करनी चिहिये ।
पवित्र होकर संकल्प के साथ व्रती अपने वंश की वृद्धि और प्रगति के लिये उपवास कर बाँस के पत्रों से पूजन करना चाहिये । तत्पश्चात व्रत — महात्म्य की कथा का श्रवण करना चाहिये ।
अपने पुत्र — पौत्रों की लम्बी आयु एवं सुन्दर स्वास्थ्य की कामना से महिलाओं को विशेषकर सधवा को इस व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ।
आश्विन कृष्ण अष्टमी तिथि में जो औरतें अन्न खाती है वे निश्चित रूप से विधवा और अभागिनी होती है तथा उसके संतान के लिए भी समय प्रतिकुल हो जाता है ।विष्णु धर्मोत्तर में भी नवमी तिथि में ही पारणा का विधान है । यदि दोनों ही दिन प्रदोषकाल काल में अष्टमी नहीं हो तो जिस दिन सूर्य का उदय अष्टमी में हो उसी दिन जीवित पुत्रिका व्रत करना चाहिए ।

 

कौन हैं विद्याधर जीमूतवाहन जिनकी कथा आज सुननी चाहिए?
जीवितपुत्रिका व्रत पर जीमूतवाहन की कथा पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार और नेपाल में जरूर सुनी जाती है। कौन हैं जीमूतवाहन, विद्याधर, सिद्ध गंधर्व आदि क्या हैं?

आपको जो कथा बताने जा रहे हैं वह एक ऐसे परोपकारी व्यक्ति की है जिसने अपना सारा जीवन दूसरों के हित के लिए समर्पित कर दिया। किसी और के पुत्र के प्राणरक्षा के लिए अपना शरीर दे दिया। उसकी दयालुता से प्रसन्न होकर स्वयं देवी पार्वती ने उसे पूजनीय होने का वरदान दिया।
यह कथा भविष्यपुराण, कथासरित्सागर एवं अन्य स्थानों पर आती है. संक्षेप में बताता चलूं कि जीमूतवाहन जिस विद्याधर कुल से आते हैं उनका सिद्धों, गंधर्वों आदि उप-देवताओं के कुल से संबंध है और ये पृथ्वीलोक पर वास करते हैं.
मैंने कुछ समय पहले भगवान वामन के प्राक्टयोत्सव पर आपको विभिन्न लोकों के बारे में बताया था. उन लोकों में निवास करने वालों के बारे में संक्षेप में बताया था. उसमें पृथ्वी लोक के ऊपर एक भुवर लोक की बात कही थी.

विद्याधरों का सिद्धों,गंधर्वों की तरह पृथ्वी लोक के ऊपर और स्वर्ग लोक से नीचे स्थित भुवर लोक में वास होता है और इच्छानुसार पृथ्वी और भुवर्लोक में आवागमन करते हैं. अपने कर्मों से ये स्वर्गलोक के भी अधिकारी बनकर देवतासृद्श भी हो जाते हैं.
इनके पास मानवों से बहुत ज्यादा शक्ति तो होती है लेकिन देवताओं जैसी अपार शक्ति नहीं होती परंतु ऐसी अनेक कथाएं हैं जिससे पता चलता है कि देवकुल के करीब रहने वाली इन प्रजातियों ने धर्मकर्म से अपनी शक्तियां बढ़ाकर देवताओं जैसी शक्ति प्राप्त की है. वे देवताओं की सेना में शामिल होकर युद्ध भी करते हैं. जीमूतवाहन भी वैसे ही एक विद्याधर थे जिन्होंने एक स्त्री के संतान की रक्षा का कार्य किया और फिर माता पार्वती से पृथ्वी लोक पर पूजे जाने का वरदान प्राप्त किया. इसीलिए जितिया को जीमूतवाहन की पूजा होती है.

।।जीमूतवाहन की कथा।।

पर्वतराज हिमालय पर कांचनपुर नाम का एक नगर था । वहां विद्याधरों का राजा जीमूतकेतु रहता था । उसके उद्यान में कुलपरम्परा से प्राप्त, सब मनोरथों को पूरा करने वाला, एक कल्पवृक्ष था, जिसकी कृपा से राजा को जीमूतवाहन नामक परम दानी, कृपालु महापुरुष, धर्मात्मा पुत्र की प्राप्ति हुई । पुत्र के युवावस्था प्राप्त करने पर राजा ने उसे सिंहासन पर बिठा दिया ।
युवराज होने पर जीमूतवाहन ने कल्पवृक्ष के सम्बन्ध में सोचा- ”हमारे पूर्वजों ने अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के अतिरिक्त इस वृक्ष से कोई लाभ नहीं उठाया । मैं इससे अपना मनोरथ पूरा करूँगा ।”
यह विचार कर उसने कल्पवृक्ष से कहा- -”देव! मेरी एक कामना पूरी करें । मैं इस समस्त संसार को दरिद्रता से मुक्त देखना चाहता हूँ; इसलिए, भद्र, जाओ, मैं तुम्हें संसार को देता हूँ ।” यह कहना था कि क्षणभर में ही कल्पवृक्ष ने आकाश में उठकर इतनी धन-वर्षा की कि पृथ्वी पर कोई भी दरिद्र न रहा।

सब प्राणियों पर दया दिखाने के कारण जीमूतवाहन का तीन लोकों में यश फैल गया. तब ईर्ष्या के कारण असहिष्णु हुए, उसके कुल-बन्धुओं ने जीमूतवाहन के राज्य को हथियाने के लिये युद्ध की तैयारी की. यह देखकर जीमूतवाहन ने अपने पिता को कहा-तात, आपके शस्त्र धारण करने पर किस शत्रु की शक्ति ठहर सकती है? किन्तु इस’ नाशवान् पापी शरीर के लिए बन्धुओं को मारकर कौन राज्य की इच्छा करे? इसलिए कहीं अन्यत्र जाकर हम दोनों लोकों का सुख देने वाले धर्म का ही आचरण करें. राज्य के लोभी ये बन्धु-बान्धव आनन्द करें.”
पिता ने कहा-”पुत्र, तेरे लिए ही राज्य है. यदि तू ही दया करके उसे छोड़ रहा है, तो मुझ वृद्ध को इससे क्या? ”
इस प्रकार दयार्द्र होकर-जीमूतवाहन राज्य को त्याग कर मलयाचल पर चला गया, वहां आश्रम बनाकर रहने लगा और माता-पिता की सेवा करने लगा।

एक बार जीमूतवाहन एक मुनिपुत्र के साथ घूमता हुआ जंगल में देवी- मन्दिर देखने गया. वहाँ उसने भगवती पार्वती की आराधना के लिए आई हुई, अपनी सखियों के साथ बैठी वीणा बजाती हुई किसी सुन्दरी कन्या को देखा। वह उसे देखते ही उस पर रीझ गया. कन्या भी उसके प्रति आकर्षित हुई. जीमूतवाहन के पूछने पर, उसकी एक सखी ने उसका नाम और वंश बताते हुए कहा-यह मित्रावसु की बहन और सिद्धराज विश्वावसु की पुत्री मलयवती है।”

सखी के पूछने पर मुनि-पुत्र ने भी जीमूतवाहन का नाम, वंश आदि बता दिया। दूसरी सखी जीमूतवाहन का आतिथ्य-सत्कार करती हुई उसके लिए एक पुष्पमाला लाई। उसने प्रेम में भरकर उस माला को मलयवती के गले में डाल दिया। इतने में एक दासी ने आकर कहा-”राजकुमारी, तुझे माता ने बुलाया है ।”

यह संदेश पाकर मलयवती ने अपने प्रिय जीमूतवाहन के मुख से अपनी दृष्टि को बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार हटाया और घर को चली । जीमूतवाहन भी उसका ही ध्यान मन में रखे अपने आश्रम में आ गया । तब से दोनों प्रेम-पाश में बन्ध गए ।
सिद्धराज विश्वावसु यह जानकर बड़ा प्रसन्न हुआ कि महात्मा जीमूतवाहन यहाँ मलयाचल पर आकर रह रहा है। उसने अपने पुत्र मित्रावसु को जीमूतवाहन के पिता के पास भेजकर अपनी कन्या उसे देने का अपना आशय कहा। एक शुभ दिन को जीमूतवाहन के साथ मलयवती का विवाह कर दिया गया।

एक दिन जीमूतवाहन अपने साले मित्रावसु के साथ मलयपर्वत से भ्रमण करता हुआ समुद्र-वेला देखने गया। वहां पर एक जगह ही बहुत सी अस्थियों का ढेर देखकर उसने मित्रावसु से पूछा-यह किन प्राणियों की अस्थियों का ढेर है?”
मित्रावसु ने कहा -”पक्षीराज गरुड़ नागों से प्राचीन वैर के कारण पाताल में प्रविष्ट होकर सदा नागपुरुषों को खाता था। कुछ को खाता, कुछ को कुचलता और कुछ डर के मारे अपने आप मर जाते। यह देखकर नागराज वासुकी ने सब नागों की समाप्ति की आशंका से गरुड़ को विनयपूर्वक कहा- ”पक्षीराज, मैं आपके आहार के लिए हर रोज एक-एक नाग को दक्षिण सागर के तट पर भेज दूंगा, आप पाताल में प्रवेश न करें। एकदम-ही सब नागों का नाश करने में आपका क्या लाभ है? ”

स्वार्थदर्शी गरुड़ ने इसे स्वीकार कर लिया। उसके बाद नित्यप्रति वासुकी द्वारा भेजे गए एक-एक नाग को खाने के कारण तथा खाए हुए नागों की ये अस्थियां काल-क्रम से संचित होने के कारण इतनी एकत्र पड़ी हैं।
यह सुनकर दयानिधि जीमूतवाहन को बहुत दुःख हुआ। उसने मन में सोचा-यह कुटिल वासुकी कैसा है, जिसने-”मुझे ही पहले खालो” ऐसा न कहकर प्रतिदिन एक-एक नाग को शत्रु का आहार बनाया और यह निर्दयी गरुड़ भी कैसा है, जो नित्य ऐसा पाप करता है। मैं आज ही अपने इस निस्सार शरीर से किसी नाग के प्राणों की रक्षा करूँगा.”

इतने में उन दोनों को बुलाने के लिये दूत आया. ‘ मित्रावसु, तुम चलो मैं पीछे आऊँगा,’ ‘ यह कहकर और उसे घर की ओर भेजकर जब ‘जीमूतवाहन स्वयं अकेला घूम रहा था तो उसने दूर से एक रोने की आवाज सुनी. वहां जाकर उसने देखा कि एक वृद्धा एक सुन्दर युवक के पास बैठी है.

पुत्र, शंखचूड़, मैं तुझे अब कहां देखूँगी? इस प्रकार वह विलाप कर रही थी.’ जीमूतवाहन ने शीघ्र जान लिया कि यह गरुड़ का बलि नाग है। उस दयावान्. महासत्व ने मन में कहा-”यदि इस नाशवान् देह से मैं इस दुःखी नाग को न बचाऊं तो मुझे धिक्कार है, मेरा जन्म निष्फल है।”
यह विचारकर उसने वृद्धा से कहा- ”माता, मत रो। मैं अपना शरीर देकर तेरे पुत्र को बचाऊँगा।”
जीमूतवाहन के इतना कहने पर शंखचूड़ ने उसे कहा-”ऐ महात्मा, निश्चय ही आपने बड़ी कृपालुता प्रकट की है। मैं भी तो आपके शरीर के बदले अपने शरीर को बचाना नहीं चाहता। रत्न को खोकर पत्थर की कौन रक्षा करना चाहेगा?”
इस प्रकार मना करके वह अपनी माता को कहने लगा-‘ ‘माता, तुम भी लौट जाओ। और जबतक वह गरुड़ नहीं आता, तब तक मैं समुद्र के तट पर जाकर भगवान् गोकर्ण को नमस्कार करके आता हूं.”

शंखचूड़ गोकर्ण देव को प्रणाम करने के लिये चला गया। अचानक वायु की तीव्रता से वृक्षों को हिलता देखकर जीमूतवाहन ने सोचा कि गरुड़ के आगमन का समय आ गया है। वह स्वयं वध्यशिला पर चढ़ गया। शीघ्र ही अपने पंखों से आकाश को आच्छादित करता हुआ गरुड़ तेजी से आया।

वह अपनी चोंच से जीमूतवाहन को पकड़कर उठा ले गया और उसका सिर खाने’ लगा। चोंच से उखाड़ने के कारण जीमूतवाहन का शिरोरत्न खून से भर गया। गरुड़ ने उसे फैंक दिया। संयोग से वह रत्न मलयवती के आगे आ गिरा। वह देखकर और सब कुछ समझकर बहुत व्याकुल हुई। उसने अपने सास-ससुर को दिखाया।

पुत्र का शिरोरत्न देखकर बूढ़े मां-बाप भी आश्चर्य और शोक से भर गए। अपनी योग-विद्या से जीमूतकेतु ने सारा वृत्तान्त जान लिया,और अपनी पत्नी और पुत्र-वधू के साथ शीघ्र ही वहां पहुँच गया जहाँ गरुड़ जीमूतवाहन को खा रहा था।
इधर जब शंखचूड् गोकर्ण देव की वन्दना करके वापिस लौटा, उसने: वध्यशिला को रुधिर से भरा देखा। ‘हा, महापाप हुआ है, मैं मारा गया! निश्चय ही उस दयालु महात्मा ने मेरे कारण निज को गरुड़ की भेंट चढ़ा दिया, यह विचार कर वह बहुत दुःखी हुआ और लहू की धार का अनुसरण करता हुआ गरुड़ को ढूँढने लगा।

जीमूतवाहन को हंसते-हंसते आत्मोत्सर्ग करते देखकर गरुड़ विचारने लगा- यह कोई अपूर्व प्राणी है, जो इस प्रकार खाये जाने पर भी प्रसन्न है। यह नाग प्रतीत नहीं होता. पूछना चाहिये कि यह कौन है? ”
गरुड़ को रुकते, देखकर जीमूतवाहन ने ही कहा- ”पक्षीराज, खाना क्यों छोड़ दिया? अभी, मेरे शरीर पर मांस और रुधिर रहता है, इसे भी लो ।”
यह सुनकर गरूड़ ने बहुत आश्चर्य से पूछा-”तुम नाग नहीं हो, बताओ महात्मन् तुम कौन हो? ”
जीमूतवाहन ने कहा ‘मैं नाग ही हूँ. यह तुम्हारा कैसा प्रश्न है? तुम अपना काम करो.’
उन दोनों में यह बातचीत हो रही थी कि शंखचूड़ वहाँ आ पहुँचा. उसने दूर से ही पुकारा- ”पक्षीराज, अनर्थ हो गया, मेरा अनर्थ हो गया!
तुम्हें भी क्या भ्रम हुआ. नाग तो वस्तुत: मैं हूँ। क्या तुम मेरे फण और जिह्वा को नहीं देख रहे? क्या इस देवजाति विद्याधर की सौम्य-आकृति तुम्हें दिखाई नहीं देती है”

जीमूतवाहन के माता-पिता और पत्नी भी बहुत जल्दी इसी समय आ पहुंचे। अपने पुत्रको खूनसे लथ-पथ देखकर वृद्ध माता-पिता विलाप करने लगे- हा पुत्र, हा वत्स! हाय गरूड़, तू ने बिना सोचे-विचारे यह क्या किया? ”
गरुड़ यह सब सुनकर बहुत दुखी हुआ। वह सोचने लगा-इसकी तीनों लोकों में कीर्ति है। मोहवश मैंने इसका भक्षण कर लिया। मेरे पाप का प्रायश्चित्त मेरे अग्नि-प्रवेश से भी न होगा।”

वह इस प्रकार विचारमग्न था, कि घावों की पीड़ा से जीमूतवाहन के प्राण निकल गए. उसके माता-पिता भारी दुख से चिल्लाने लगे. शंखचूड़ आत्मभर्त्सना करता रहा और मलयवती- देवी गौरी को उपालम्भ देती हुई दुख प्रकट करने लगी।
इसी समय देवी गौरी साक्षात् प्रकट हुई-”पुत्री, दुखी मत हो यह कहकर उन्होंने अपने कमण्डल से जीमूतवाहन पर अमृत छिड़का। इससे जीमूतवाहन सम्पूर्ण अंगों सहित पहले से भी अधिक ज्योति पाकर उठ खड़ा हुआ। ”मैं इसे अपने ही हाथों से विद्याधरों के चक्रवर्ती राज-पद पर अभिषिक्त करूँगी. जीमूतवाहन के पुण्यकर्मों का स्मरण कर दूसरों की संतानों के प्रति दयाभाव रखने वाले सदैव संतानयुक्त रहेंगे. उनकी संतान के अकालमृत्यु जैसे कष्टों का निवारण होगा ‘

यह कहकर देवी ने अपने कलश के जल से उसका अभिषेक किया ? और अन्तर्धान हो गई. आकाश से पुष्प-वृष्टि हुई और आनन्द-ध्वनि से गगन मंडल गूँजने लगा।
तत्पश्चात् गरुड़ ने नम्रतापूर्वक जीमूतवाहन से कहा-”महाराज, मुझे आज्ञा करें। मुझ से वांछित वर मांगें. ”
जीमूतवाहन ने कहा- ”आज से आप नाग-भक्षण छोड़ दें और पहले: खाए हुए नाग भी जीवित हो जाएं। ” गरुड़ ने ‘एवमस्तु’ कहा।
वे नाग सब जी उठे, और गरूड़ ने नाग-भक्षण छोड़ दिया। जीमूतवाहन भगवती गौरी की कृपा से चिरकाल तक विद्याधरों का चक्रवर्ती राजा रहा.

  • डॉ0 विजय शंकर मिश्र
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