रामायण भोग नही अपितु त्याग का संदेश देती है | भागवत मधुकर बाल संत श्री मणिराम दास जी |

भरत जी नंदिग्राम में रहते हैं, शत्रुघ्न जी उनके आदेश से राज्य का संचालन करते हैं।

एक रात माता कौशिल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी। नींद खुल गई, पूछा कौन हैं?

मालूम पड़ा श्रुतिकीर्तिजी हैं।नीचे बुलाया गया।

श्रुतिकीर्ति जी, जो सबसे छोटी हैं, आईं और चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं।

माता कौशल्याजी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो? क्या नींद नहीं आ रही?

शत्रुघ्न कहाँ है?

श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आई, माँ की छाती से चिपट गोद में सिमट गईं और बोलीं कि “माँ, उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए।”

उफ! कौशल्या जी का ह्रदय काँप गया।

*तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए। आधी रात ही पालकी तैयार हुई। आज शत्रुघ्नजी की खोज होगी, माँ चली।

अयोध्याजी के जिस दरवाजे के बाहर भरतजी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला है। उसी शिला पर अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले शत्रुघ्नजी ।

माँ सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी ने आँखें खोलीं, माँ! उठे, चरणों में गिरे। माँ! आपने क्यों कष्ट किया? मुझे बुलवा लिया होता।

माँ ने पूछा शत्रुघ्न! “यहाँ क्यों?”

शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी बोले- माँ! भैया रामजी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए। भैया लक्ष्मणजी उनके पीछे चले गए। भैया भरतजी भी नंदिग्राम में हैं। क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र इत्यादि सब विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं?

माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं।

यह रामकथा है।

यह भोग की नहीं त्याग की कथा है। त्याग की प्रतियोगिता चल रही इसमें और सभी के सभी प्रथम स्थान पर ही हैं, कोई द्वीतीय नहीं रहा

चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक-दूसरे के प्रति अद्भुत, अभिनव और अलौकिक है।
*रामायण जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं।
भगवान रामजी को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी, माँ सीताजी ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया। परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मणजी कैसे रामजी से दूर हो जाते! माता सुमित्राजी से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी वन जाने की परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोचने लगे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा, क्या कहूंगा!!

यही सोच-विचार करके लक्ष्मणजी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिलाजी आरती का थाल लेकर खड़ी थीं और बोलीं कि “आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु की सेवा में वन को जाइए, मैं आपको नहीं रोकूँगी। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।”

लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिलाजी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया, पत्नी का धर्म निभाया। पति संकोच में पड़े उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बातें जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे।

लक्ष्मणजी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिलाजी ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मणजी कभी सोये नहीं परन्तु उर्मिलाजी ने भी अपने महल के द्वार कभी बंद नहीं कीं और सारी रात जाग-जाग कर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया।

मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मणजी को शक्ति लग जाती है और हनुमानजी उनके लिये संजीवनी का पहाड़ लेकर लौट रहे होते हैं तो बीच में अयोध्या के उपर आकाश में भरतजी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमानजी अयोध्या की धरती पर ही गिर जाते हैं। हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीताजी को रावण ले गया, लक्ष्मणजी मूर्छित हैं।

यह सुनते ही कौशल्याजी कहती हैं कि “राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना।” राम वन में ही रहे। माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं। अभी शत्रुघ्न है, मैं उसे भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं। माताओं का प्रेम देखकर हनुमानजी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिलाजी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?

हनुमान जी पूछते हैं- देवी! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिलाजी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा। वे बोलीं- “मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता। आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं। जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता। यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं। मेरे पति जब से वन गये हैं तबसे सोये नहीं हैं। उन्होंने न सोने का प्रण लिया था इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं। और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया, वे उठ जायेंगे। और शक्ति मेरे पति को लगी ही नहीं, शक्ति तो राम को लगी है। मेरे पति की हर श्वास में राम हैं। हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद-बूंद में राम हैं और जब उनके शरीर और आत्मा में हैं ही सिर्फ राम तो शक्ति रामजी को ही लगी, दर्द रामजी को ही हो रहा। अत: हनुमान जी, आप निश्चिन्त होकर जाएँ, सूर्य उदित नहीं होगा।”

राम-राज्य की नींव जनक की बेटियां ही थीं, कभी सीताजी तो कभी उर्मिलाजी। भगवान् रामजी ने तो केवल राम-राज्य का कलश स्थापित किया परन्तु वास्तव में राम-राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण और बलिदान से ही आया।


भागवत मधुकर बाल संत श्री मणिराम दास जी महराज (मनी भैया)
संगीतमय श्री राम कथा श्रीमद् भागवत कथा श्री शिव महापुराण कथा एवं श्रीमद् प्रेम रामायण महाकाव्य जी की कथा के सरस वक्ता
श्री राम हर्षण कुंज सिद्धि सदन श्री धाम अयोध्या जी
संपर्क सूत्र 6394614812

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