राजनीति में अपने पिता सा रुतबा हासिल करना तेजस्वी और अखिलेश यादव के लिये ज़रा भी आसान नही

राजनीति में अपने पिता सा रुतबा हासिल करना तेजस्वी और अखिलेश यादव के लिये ज़रा भी आसान नही


बिहार विधानसभा चुनाव की बिसात बिछने लगी है। वहीं उत्तर प्रदेश का भी चुनाव ज़्यादा दूर नही। दोनों सूबों में कांग्रेस और बीजेपी के अलावा आरजेडी और समाजवादी पार्टी का रोल भी बेहद अहमियत रखता हैं। इन दोनो पार्टी सुप्रीमों मुलायम और लालू प्रसाद यादव के हाथ लंबे अर्से तक सूबे की सत्ता की बागडोर रही।

जगज़ाहिर है कि इन दोनो ही नेताओं की राजनीति विशेषरूप से यादवों पर केंद्रित हैं। इन दोनो ही राजनैतिक खिलाडियों के परिवार में हमेशा से ही राजनीतिक माहौल रहा। लेकिन दोनों नेताओं के बेटे, पिता जैसा रुतबा हासिल नही कर पाए। ऐसे में अखिलेश के साथ साथ तेजस्वी के सामने एक बार फिर से खुद को साबित करने का मौक़ा है।

विधानसभा चुनाव नज़दीक है। लेकिन सूबे में बीजेपी की तैयारी अव्वल दिख रही है। चुनावी तैयारी में आरजेडी काफ़ी पीछे नज़र आ रही। ऐसे में अब कई बड़े सवाल भी उठने लगे हैं। सवाल ये कि क्या तेजस्वी और अखिलेश अपने सूबे में अपने पिता के पदचिन्हों पर चल पाएंगे! क्या ये दोनो बेटे अपने_ अपने पिता की मंजी हुई राजनीतिक रणनीतियों को आत्मसात कर पाएंगे!

इन सभी सवालों पर राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि लालू और मुलायम दोनों ही ज़मीन से जुड़े नेता हैं। दोनों ही लोकप्रिय नेता संघर्ष की पैदाइश हैं। ये दोनो ही ज़मीनी नेता फिलहाल राजनीति में पूर्णतः सक्रिय नही हैं। दरअसल इन दोनों के सुपुत्रों ने ना तो राजनीति से पहले और ना ही राजनीति के बाद कोई संघर्ष किया है। अपने अपने पिता जैसे ना तो इनका जनता से कोई खास जुड़ाव है। ना पार्टी कार्यकर्ताओं को मनोबल बढाकर जोड़कर रखने की क़ाबिलियत। इसलिए इन दोनों के लिये मुलायम और लालू के पदचिन्हों पर चलना लोहे के चने चबाने से कम नहीं।

अगर हम एक नज़र डालें तो उत्तर प्रदेश में मसलों की कमी नही। लेकिन मुलायम के सुपुत्र अखिलेश ना तो इसे उठा पा रहे और ना ही भुना पा रहे। जानकारों का मानना है कि मुलायम और लालू यादव के कर्मो का भुगतान उनके बेटो को करना पड़ रहा है। मुलायम और लालू दोनों ही हमेशा जातिगत राजनीति पर केंद्रित रहे। एक पारिवारिक नेता बनने की बजाए अगर उस वक़्त इन दोनो ने सोशल इन्जीनियरिंग की होती तो आज हालात कुछ और होते। पिछड़ों का झंडाफहराने की बात करने वाले, पिछड़ों के लिए कोई भी बड़ा फैसला नही कर सके। जिसके चलते इनके समर्थक धीरे धीरे इनका हाथ छोड़ते चले गये। पिता की बिखरी राजनैतिक विरासत को समेटना इन दोनो युवा नेताओं के लिये मुश्क़िल हो रहा।

वही इनसे इतर दूसरे विशेषज्ञों के मुताबिक ये दोनों नेता जब अपने सूबे की सत्ता में आए थे तब पिछड़ा वर्ग इतना मुखर कभी नहीं था। ऐसा माना जाता हैं कि इन दोनों नेताओं की वजह से ओबीसी वर्ग में कुछ आत्मविश्वास जागा।

कुल मिलाकर निष्कर्ष ये है कि तेजस्वी और अखिलेश दोनो को ही राजनीति में पिता जैसा मुक़ाम हासिल करने के लिये एक उचित दृष्टिकोण और उसे जनता के सामने परोसने का लहजा सीखना होगा। अखिलेश और तेजस्वी को अभी और भी संघर्ष करना होगा। अब इन्ही दोनो युवा नेताओ के कन्धे पर अपनी पार्टी की साख की ज़िम्मेवारी है। बाकी तो ये ज़रूरी नही कि पिता के जूते में बेटे का पांव फिट बैठ ही जाए।

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